संक्षिप्त सारांश
2025 में अमेरिका-कनाडा के बीच व्यापार युद्ध ने एक बार फिर जोर पकड़ लिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पहली अगस्त से कनाडा से आने वाले सभी वस्तुओं पर 35% टैरिफ लगाने की घोषणा की है। टैरिफ का कारण, ट्रंप के अनुसार, कनाडा द्वारा नशीली दवाओं (फेंटानिल) की तस्करी रोकने में विफलता और अमेरिका के व्यापार घाटे को बढ़ाने वाली व्यापारिक बाधाएँ हैं। इस कदम के प्रतिशोध में, कनाडा ने अपने कुछ स्टील आयातों पर कोटा एवं अधिभार लगाया था। विवाद की शुरुआत कनाडा द्वारा लागू किए जाने वाले डिजिटल सेवा टैक्स से भी हुई थी, जिसे बाद में कनाडा ने वापस ले लिया।
विश्लेषण
इस घटनाक्रम के पीछे कई परतें हैं। प्रथम, व्यापार टैरिफ को अक्सर आर्थिक सुरक्षा और घरेलू उद्योगों को संरक्षण देने के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन यह कदम हमेशा इतनी सीधी-सादी वजहों से नहीं उठाया जाता। अमेरिका-मैक्सिको-कनाडा समझौता (USMCA) जैसी संधियों की मौजूदगी के बावजूद, राजनीति और चुनावी गणित भी इसमें अहम भूमिका निभाते हैं। फेंटानिल की तस्करी या व्यापार घाटे को लेकर ट्रंप के आरोप भले राजनीतिक तौर पर लोकप्रिय लग सकते हैं, लेकिन अमेरिका और कनाडा की आपसी निर्भरता और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं की जटिलता को नजरअंदाज किया जा रहा है।
इस बयानबाजी में स्पष्ट राजनीतिक एजेंडा नज़र आता है: ट्रंप की पुरानी 'अमेरिका फर्स्ट' नीति, जिसमें मित्र राष्ट्र भी टकराव के दायरे में आ जाते हैं। कनाडा को 51वां अमेरिकी राज्य बनाने जैसी टिप्पणियाँ इस टकराव में अतिरिक्त गर्मी भरती हैं। दूसरी तरफ, कनाडा की प्रतिक्रिया—टैक्स में छूट देना या कोटा लगाना—अपने घरेलू हितों की रक्षा की स्ट्रैटेजी है।
इतिहास गवाह है कि आमतौर पर ऐसे व्यापार युद्ध दोनों पक्षों के लिए नुकसानदेह होते हैं, जिससे न केवल मूल्य वृद्धि होती है, बल्कि नौकरियों में कटौती और आर्थिक अनिश्चितता भी जन्म लेती है। अमेरिकी शेयर बाजार में गिरावट इसकी त्वरित झलक है। छोटे व्यापार, उपभोक्ता और क्षेत्रीय कंपनियां ऐसी टैरिफ नीतियों की पहली शिकार होती हैं।
विमर्श
यह मुद्दा केवल ट्रंप बनाम कनाडा सरकार का नहीं है; यह उस व्यापक वैश्विक चलन का हिस्सा है जिसमें राष्ट्रवाद, संरक्षणवाद और त्वरित राजनैतिक लाभ की चाह, दीर्घकालिक आर्थिक साझेदारियों पर भारी पड़ती दिखती है।
क्या टैरिफ से फेंटानिल की तस्करी रुक सकती है? क्या अमेरिका को वाकई व्यापार घाटा टैरिफ से घटाने में सफलता मिलेगी, या फिर वैश्विक सप्लाई चेन में और व्यवधान पैदा होगा? ऐसे कदम ग्लोबल ट्रेड के लोकतांत्रिक सिद्धांतों के भी खिलाफ हैं।
वहीं, पिछले एक दशक में हम देख चुके हैं कि चीन, यूरोप या भारत के खिलाफ ऐसे टैरिफ कितने प्रभावी रहे; अक्सर द्विपक्षीय वार्ताएँ, रियायतें और अस्थायी समझौते ही इनका अंत रही हैं। लेकिन अनिश्चितता और राजनैतिक तनाव बहुतों की आजीविका पर चोट करता है।
एक अहम सवाल यह भी है कि अगर ट्रंप फिर से 'ताकत' की भाषा में व्यापार नीति तय करेंगे, तो क्या अमेरिका अपने सहयोगियों का भरोसा बनाए रख पाएगा? दुनिया में जिन देशों का जिक्र ट्रंप ने अपने ताजा बयानों में किया—जापान, ब्राजील, दक्षिण कोरिया—उनके साथ रिश्तों पर भी ये टैरिफ असर डालेंगे।
निष्कर्ष
यह ट्रेड वार महज करों का मसला नहीं—यह ग्लोबल संबंधों, स्थायित्व और आपसी भरोसे की भी परीक्षा है। इसमें अर्थव्यवस्था के साथ-साथ समाज और राजनीति की दिशा भी तय होती है। ऐसे में सभी पक्षों की जिम्मेदारी बनती है कि जल्द और संतुलित समाधान तक पहुँचें ताकि दोनों देशों के नागरिकों तथा वैश्विक व्यापार को नुकसान से बचाया जा सके।
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