क्या आपको गर्व है कि आपकी जेब में जो चमचमाता आईफोन है, वो देवनहल्ली के खेतों में मजदूरों के झुके हुए कंधों की कीमत पर बन रहा है? या क्या आपको अफ़सोस है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के सारे नारे — 'मेक इन USA' — आखिरकार, बेमतलब हास्य के सिवा कुछ नहीं रहे?
सच्चाई ये है: अमरीका की सत्ता और उसके कॉर्पोरेट अरबपति आज बड़ी-बड़ी बातें जरूर करते हैं, लेकिन जब असली काम की बारी आती है, तो Foxconn जैसी ताइवानी कंपनियां भारत के गरीब खेतिहर इलाकों में अरबों डॉलर फूंक देती हैं। भारत में चमचमाती फैक्ट्रियाँ बन रही हैं, जहां दुनिया के एक चौथाई iPhone अगले साल से तैयार होंगे। ट्रंप भले टीवी कैमरों के सामने अपने बाल झटकते रहें — सोचते रहें कि Apple अमेरिका में फैक्ट्रियां लगाएगा। असलियत का नाम है: मजदूरी, श्रम और तुच्छ पंजों में समाया भविष्य — जो भारत के गांवों और कपड़े चूसते लोगों के हिस्से है।
क्या अमेरिका के युवा कभी 12- घंटे की शिफ़्टें, बिना सामाजिक सुरक्षा के, बिना यूनियन के, और दिन-रात मशीनों की खरोंच के बीच काम करेंगे? क्या Silicon Valley के टेक-आइकॉन वाकई कभी अपनी कमाई की मोटी चर्बी छोड़ पाएंगे — ताकि अपने ही देश में निर्माण हो? नहीं। अमेरिकी व्यवस्था इतना कमजोर, इतना आलसी और इतना लालची है कि अब उसे भविष्य अपने हाथों में गढ़ने का साहस ही नहीं।
भारत अपनी गरीबी, भीड़ और संघर्ष की कीमत पर ये बोझ उठा रहा है — और अमरीकी अपने सपनों की जुगाली कर रहे हैं। जिन आपूर्ति-श्रृंखलाओं को तोड़ने के लिए, चीन को ‘दुश्मन’ घोषित करके, अमेरिका ने नारे गढ़े — उनका सारा वास्ता अश्लील मुनाफे और देसी मजदूरी के शोषण से है।
क्या हम अमेरिका की इस पाखंडी “राष्ट्रीयता” से सवाल करेंगे? क्यों हर ‘मेक इन यूएसए’ की तड़प का अंत ब्लैक फ्राइडे की छूट या नए iPhone के विज्ञापन में होता है, सीधे भारतीय श्रमिक के खून-पसीने पर? हम सब डिजिटल स्लेवरी के इस युग में अपने-अपने नैतिकता के पर्दे क्यों नही नोच डालते?
अब वक्त है शर्म से सिर झुकाने का — या शर्म के साथ खुद से सच पूछने का: आपके हाथ में जो iPhone है उसमें छिपे खून के छींटों को आप कब तक अनदेखा करेंगे?
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