संक्षिप्त सारांश
भारतीय चुनाव आयोग (ECI) ने हाल ही में बिहार के लगभग 8 करोड़ वोटरों को अपने दस्तावेजों की दोबारा जाँच करवाने और मतदाता सूची में फिर से पंजीकरण करवाने का आदेश जारी किया है। यह कार्रवाई कथित तौर पर विदेशी अवैध प्रवासियों को चुनाव से हटाने के नाम पर की जा रही है। आयोग की घोषणा के मुताबिक, जो नागरिक अपनी नागरिकता प्रमाणित नहीं कर पाएंगे, उन्हें मतदाता सूची से बाहर कर दिया जाएगा और संदिग्ध विदेशियों के रूप में दर्ज किया जा सकता है। इस कदम के विरोध में व्यापक राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रिया देखने को मिली है, अदालत में याचिका दायर हुई है, और विपक्ष ने इसे NRC जैसे विवादास्पद प्रयासों का छिपा रूप बताया है।
विश्लेषण
इस पूरे घटनाक्रम की जड़ें न सिर्फ चुनावी शुद्धता के सरकारी दावे में हैं, बल्कि इसमें राजनीति और सामाजिक न्याय के अधिक गहरे सवाल भी छिपे हैं।
सबसे बड़ा विवाद ECI द्वारा अचानक, बिना सार्वजनिक चर्चा के, इतने बड़े स्तर पर दस्तावेजों की माँग का है — वह भी बिहार जैसे राज्य में, जहाँ गरीबी, अशिक्षा और दस्तावेजों की अनुपलब्धता से बड़ी संख्या में लोग पहले ही जूझ रहे हैं। बिहार की जनता का बड़ा हिस्सा या तो जन्म प्रमाणपत्र, शिक्षा प्रमाणपत्र या पासपोर्ट जैसे कागज़ात नहीं रखता—सरकार खुद मानती है कि राज्य में जन्म पंजीकरण सबसे कम है। ऐसे में करोड़ों लोगों के मताधिकार पर तलवार लटक रही है।
राजनीतिक धाराएं भी इसमें गहराई से बसी हैं: बीजेपी लंबे समय से साफ कहती आई है कि विदेशियों (खासकर बांग्लादेशी मुस्लिमों या रोहिंग्या शरणार्थियों) की घुसपैठ वोटर सूची में हो रही है, जिससे वे अपना राजनैतिक आधार खो रहे हैं। यह एक संवेदनशील क्षेत्र है, क्योंकि दस्तावेजीकरण के इस नए शर्त से सबसे अधिक नुकसान पारंपरिक रूप से विपक्षी दलों (कांग्रेस, आरजेडी) को समर्थन देने वाले, गरीब और हाशिए पर रह रहे समुदायों को होगा, विशेषकर मुसलमानों को।
ECI की तटस्थता और प्रक्रिया पारदर्शिता पर भी सवाल उठे हैं: इतने बड़े फैसले पर कोई सार्वजनिक सलाह-मशविरा नहीं हुआ, न विपक्ष और न ही नागरिक समाज को सुना गया। ECI का यह कदम न सिर्फ इसकी निष्पक्षता पर सवाल उठाता है, बल्कि राजनीतिक सन्देश भी देता है।
चर्चा और व्यापक दृष्टि
यह मुद्दा भारत की लोकतांत्रिक पहचान के लिए अत्यंत मौलिक है: जब चुनाव आयोग ही नागरिकों को दोबारा अपने अस्तित्व का प्रमाण माँग रहा हो, वह भी ऐसे कागज़ जो खुद सरकार सभी को नहीं दे पाई, तो लोकतंत्र का बुनियादी ढाँचा ही दांव पर लगता है। जिस तरह दुनिया भर में पहचान और नागरिकता के सवाल राजनीति के औजार बन रहे हैं, बिहार में भी यह कदम अतीत की घटनाओं (असम में NRC, अमेरिका-मेक्सिको बॉर्डर, या यूरोप की शरणार्थी नीति) से मिलता-जुलता है।
भारत की संकल्पना में मताधिकार एक बुनियादी अधिकार है, जिसे जाति, धर्म, भाषा या संपत्ति के आधार पर नहीं छीना जा सकता। दस्तावेज़ीकरण को आधार बनाकर वोटिंग अधिकार छीनना, खासकर उन समुदायों से जो सामाजिक/आर्थिक रूप से संकटग्रस्त हैं, एक सामाजिक और नैतिक संकट भी है।
यह भी विचारणीय है कि इतने बड़े प्रशासनिक बदलाव के लिए समय के रूप में मानसून और बाढ़ का मौसम चुना गया, जब बिहार के गाँव बुरी तरह से प्रभावित रहते हैं। इससे यह आशंका भी गम्भीर होती है कि यह प्रक्रिया कहीं नियोजित तौर पर हाशिए पर रह रहे लोगों को बाहर करने का प्रयास तो नहीं है।
महत्वपूर्ण सवाल
- क्या ECI के पास सच में कोई ठोस डेटा है जिससे यह साबित हो कि करोड़ों अवैध विदेशियों ने सूची में जगह बना ली है?
- मतदाता सूची में खामी का मूल्यांकन और सुधार विमर्श का हिस्सा क्यों नहीं बना?
- क्या दस्तावेज आधारित मतदान अधिकार भविष्य में पूरे देश में लागू किया जाएगा?
निष्कर्ष
यह मुद्दा सिर्फ बिहार या 2025 के विधानसभा चुनाव तक सीमित नहीं है; यह भारत के लोकतांत्रिक ताने-बाने की दिशा तय करेगा। नागरिक अधिकारों की रक्षा न की जाए, तो यह प्रवृत्ति राजनैतिक रूप से असहज समूहों के दमन का औजार बन सकती है। हमें सोचना चाहिए कि लोकतंत्र सिर्फ वोट डालने का अधिकार नहीं, बल्कि उस अधिकार की सार्वभौमिकता और निस्संदेहता भी है।
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