ग्लोबल साउथ और वैश्विक संस्थाओं में प्रतिनिधित्व: क्यों जरूरी हैं सुधार और ब्रिक्स जैसी साझेदारियां?

ग्लोबल साउथ और वैश्विक संस्थाओं में प्रतिनिधित्व: क्यों जरूरी हैं सुधार और ब्रिक्स जैसी साझेदारियां?
1.0x

वैश्विक संस्थाओं में ग्लोबल साउथ की अहम भूमिका: क्यों बढ़ रही है चर्चा?

बीते दिनों ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में हुए 17वें BRICS शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान ने दुनिया भर में हलचल मचा दी। उन्होंने कहा, "ग्लोबल साउथ के बिना वैश्विक संस्थाएं ऐसे हैं, जैसे मोबाइल में बिना नेटवर्क वाला सिम कार्ड।" यह वक्तव्य न सिर्फ वर्तमान वैश्विक परिप्रेक्ष्य को उजागर करता है, बल्कि इस मुद्दे पर लोगों की जिज्ञासा और बहस को भी बढ़ाता है।

ग्लोबल साउथ: कौन, क्यों और क्या है ज़रूरी?

ग्लोबल साउथ शब्द आमतौर पर उन विकासशील देशों के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जो एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में स्थित हैं। ये देश वैश्विक जनसंख्या का लगभग दो-तिहाई हिस्सा हैं और आधुनिक विश्व की अर्थव्यवस्था में इनका योगदान निरंतर बढ़ रहा है। लेकिन, प्रतिनिधित्व के नाम पर इन्हें औपचारिक मंचों पर अभी भी सीमित हिस्सा मिलता है।

21वीं सदी में वैश्विक संस्थाएं: आउटडेटेड संरचना या सुधार की जरूरत?

  • 20वीं सदी में बनी United Nations Security Council (UNSC), World Trade Organization (WTO) और Multilateral Development Banks जैसी संस्थाएं आज भी उसी मॉडल पर चल रही हैं।
  • तर्क दिया जा रहा है कि हर हफ्ते जहां टेक्नोलॉजी और AI में क्रांतिकारी बदलाव आ रहे हैं, वहीं ग्लोबल गवर्नेंस अभी भी पुराने टाइपराइटर के समान ही टिक गई है।
  • क्या BRICS का विस्तार इसका समाधान है? या व्यापक सुधारों की आवश्यकता है?

BRICS: टाइम-टेस्टेड मॉडल या सुधार की मिसाल?

प्रधानमंत्री मोदी ने ब्रिक्स की 'तदनुरूप परिवर्तनशीलता' को वैश्विक बदलावों का आईना बताया।

  • BRICS देशों का विस्तार और नए मित्र राष्ट्रों का जुड़ना समावेशी वैश्विक नेतृत्व की नई मिसाल बन सकता है।
  • इस तरह की साझेदारियों से वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक संतुलन और मजबूत हो सकता है।

ग्लोबल साउथ के सामने मुख्य चुनौतियां

  1. संसाधनों का असमान वितरण
  2. जलवायु वित्तीय साधनों की सीमित उपलब्धता
  3. तकनीक तक पहुंच का अभाव
  4. सुरक्षा और विकास में प्राथमिकता की कमी

क्यों जरूरी है वैश्विक संस्थाओं में सुधार?

  • केवल नाममात्र का प्रतिनिधित्व ग्लोबल साउथ की प्रगति रोक रहा है।
  • वैश्विक निर्णयों में जब वास्तविक हितग्राहकों की आवाज़ नहीं होगी, तो नीति-निर्माण भी अधूरा और असंतुलित रहेगा।
  • वैश्विक संस्थाओं की 'विश्वसनीयता' और 'प्रभावशीलता' का सवाल इन्हीं सुधारों पर टिका है।

सुधार की दिशा: क्या हो सकते हैं संभावित कदम?

  • ब्रिक्स जैसी संस्थाओं का विस्तार व लोकतांत्रिक संचालन मॉडल आदर्श बन सकता है।
  • UNSC, WTO और अन्य संस्थाओं में स्थायी और विवेकपूर्ण बदलाव की ज़रूरत है।
  • ग्लोबल साउथ को सिर्फ सहयोग या प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व ही नहीं, बल्कि नीति-निर्माण में निर्णायक भूमिका चाहिए।

निष्कर्ष

21वीं सदी में वैश्विक चुनौतियां भीषण और बहुआयामी हैं। ऐसे में, सिर्फ टाइपराइटर से सॉफ्टवेयर नहीं चलाया जा सकता—वैश्विक संस्थाओं को समय, टेक्नोलॉजी और समाज के अनुरूप बदलाव लाना ही होगा। BRICS का विस्तार पहला कदम है, पर असली बदलाव तभी आएगा जब ग्लोबल साउथ की आवाज़ वास्तविक मंचों पर सुने जाएगी।


सामान्य सवाल-जवाब (FAQs)

Q1: ग्लोबल साउथ का क्या अर्थ है?
A1: यह शब्द मुख्य रूप से विकासशील देशों के लिए प्रयोग होता है, जिसमें एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका के देश शामिल हैं।

Q2: BRICS क्यों महत्वपूर्ण है?
A2: BRICS विकासशील देशों के लिए साझा मंच है, जो वैश्विक निर्णयों में लोकतांत्रिक और समावेशी प्रतिनिधित्व की दिशा में प्रयासरत है।

Q3: वैश्विक संस्थाओं में सुधार क्यों ज़रूरी हैं?
A3: ताकि निर्णय प्रक्रिया में हर हिस्सेदार देश की जायज हिस्सेदारी और भागीदारी सुनिश्चित हो सके।

Q4: क्या सिर्फ BRICS पर्याप्त है?
A4: BRICS एक शुरुआत है, मगर व्यापक वैश्विक सुधारों के बिना पूर्ण बदलाव संभव नहीं।


[स्रोत: प्रधानमंत्री के BRICS शिखर सम्मेलन भाषण, आज तक, अन्य वैश्विक नीति रिपोर्ट]

Language: Hindi
Keywords: ग्लोबल साउथ, BRICS Summit, वैश्विक संस्थाओं में सुधार, UNSC सुधार, WTO, Multilateral Development Banks, BRICS विस्तार, ग्लोबल प्रतिनिधित्व, प्रधानमंत्री मोदी भाषण, इंटरनेशनल गवर्नेंस, AI और ग्लोबल पॉलिटिक्स, Global South Challenges, BRICS नया विस्तार
Writing style: सूचनात्मक, विश्लेषणपरक, सरल भाषा
Category: दुनिया / वैश्विक राजनीति
Why read this article: यह आर्टिकल आपको वैश्विक संस्थाओं में ग्लोबल साउथ की भूमिका, BRICS जैसी साझेदारियों की प्रासंगिकता, और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सुधारों की अत्यंत जरूरी बहस की संपूर्ण तस्वीर देता है। इससे आप न केवल ट्रेंडिंग वैश्विक चर्चा को समझेंगे, बल्कि भविष्य की राजनीति व नीति-निर्माण की ओर भी झांक सकेंगे।
Target audience: विश्व राजनीति/अर्थशास्त्र में रुचि रखने वाले पाठक, छात्र, नीति निर्माता, प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वाले, और सामाजिक-राजनीतिक विषयों के पाठक

Comments

No comments yet. Be the first to comment!

0/2000 characters