परिचय
डी-डॉलराइजेशन (De-dollarization) वह वैश्विक आर्थिक प्रक्रिया है जिसमें अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वित्तीय लेनदेन में अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता को कम करने का प्रयास किया जाता है। यह अवधारणा 21वीं सदी के दौरान अधिक महत्वपूर्ण बन गई है, विशेष रूप से तब जब विभिन्न देश एवं अंतरराष्ट्रीय संगठन अमेरिकी डॉलर की प्रभावशीलता और प्रभुत्व के संभावित नकारात्मक प्रभावों को महसूस करने लगे हैं।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात से, अमेरिकी डॉलर ने वैश्विक रिजर्व मुद्रा तथा व्यापारिक लेनदेन की प्रमुख मुद्रा के रूप में प्रभुत्व स्थापित किया। ब्रेटन वुड्स समझौते (1944) के तहत, अमेरिकी डॉलर को सोने से जोड़ने की व्यवस्था की गई थी, जिससे अधिकांश देशों ने अपने विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर को प्रमुखता दी। यद्यपि 1971 में यह व्यवस्था समाप्त हो गई, डॉलर का अनुपातिक महत्व बना रहा।
डी-डॉलराइजेशन के प्रेरक तत्व
- आर्थिक संप्रभुता की आवश्यकता: अलग-अलग देश चाहते हैं कि उनकी अर्थव्यवस्था बाहरी मुद्रा के उतार-चढ़ाव पर कम निर्भर हो।
- अमेरिकी प्रतिबंधों का प्रभाव: अमेरिका द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों के मद्देनज़र कुछ देश डॉलर-आधारित प्रणाली से बाहर होने का प्रयास करते हैं।
- फाइनेंशियल स्टेबिलिटी: डॉलर के उतार-चढ़ाव से अन्य देशों की मुद्राएं प्रभावित होती हैं, जिससे वे अपनी मुद्रा में अधिक व्यापार की ओर आकर्षित होते हैं।
- भूराजनीतिक समीकरण: वैश्विक सत्ता संतुलन में परिवर्तन लाने हेतु कुछ राष्ट्र मिलकर वैकल्पिक भुगतान तंत्र और मुद्राएं विकसित कर रहे हैं।
जटिलताएँ एवं चुनौतियाँ
- भविष्य की अनिश्चितता: डॉलर वैश्विक अर्थव्यवस्था की लोकविकसित संरचना में गहराई तक समाहित है। इसलिए, इससे हटना आसान नहीं है।
- विश्वास और स्थिरता: अन्य मुद्राओं का सीमित अंतरराष्ट्रीय विश्वास एवं स्थिरता।
- तकनीकी और अवसंरचनात्मक बाधाएँ: भुगतान तंत्र, बैंकों एवं बाजारों में व्यापक बदलाव की आवश्यकता।
प्रमुख कदम और पहलें
- ब्रिक्स देशों की पहल: ब्राजील, रूस, भारत, चीन, एवं दक्षिण अफ्रीका ज्यों-ज्यों आर्थिक रूप से मजबूत हो रहे हैं, वे अपने पारस्परिक व्यापार में स्थानीय मुद्राओं को प्राथमिकता देने लगे हैं।
- यूरो ज़ोन और रेनमिंबी: यूरो और चीनी युआन को वैश्विक वित्तीय प्रणाली में मजबूती के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है।
- स्वतंत्र भुगतान प्रणालियाँ: रूस, चीन और अन्य देशों द्वारा स्विफ्ट प्रणाली के विकल्प के रूप में अपनी भुगतान प्रणालियाँ विकसित की जा रही हैं।
महत्व
डी-डॉलराइजेशन से निम्नलिखित संभावित परिवर्तन दृष्टिगत हैं:
- अमेरिकी आर्थिक और भू-राजनीतिक प्रभाव में कमी
- वैश्विक वित्तीय प्रणाली का विकेंद्रीकरण
- उभरती अर्थव्यवस्थाओं की मुद्रा को बढ़ावा
- व्यापार में जोखिम और लागत में कमी
निष्कर्ष
डी-डॉलराइजेशन वर्तमान वैश्विक आर्थिक संरचना में बड़ा बदलाव लाने वाली अवधारणा है। हालांकि इसकी प्रगति में कई जटिलताएं हैं, परंतु इसमें संभावनाएं हैं कि अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संतुलन में भविष्य में विविधता और स्थिरता आ सकती है।
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