संक्षिप्त सारांश
तेलंगाना के संगारेड्डी जिले की सिगाची केमिकल्स फैक्ट्री में 30 जून 2025 को हुए भीषण धमाके में अब तक 34 लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि 30 से अधिक लोग घायल हैं। फैक्ट्री की रिएक्टर यूनिट में हुए विस्फोट के कारण आग लग गई, जिससे बड़ी तादाद में मजदूर झुलस गए। कई शव मलबे से निकाले गए। फैक्ट्री में ब्लास्ट के वक्त 50 से ज्यादा कर्मचारी मौजूद थे, जिनमें अधिकतर मजदूर मध्य प्रदेश, बिहार, ओडिशा और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मृतकों के परिवारों को 2 लाख और घायलों को 50 हजार रुपये की सहायता की घोषणा की है।
विश्लेषण
यह हादसा औद्योगिक सुरक्षा मानकों की अनदेखी की परिणति है। भारत में फैक्ट्रियों, खासकर केमिकल और फार्मास्युटिकल उद्योगों में, सेफ्टी प्रोटोकॉल अक्सर कागज़ी होते हैं। शुरुआती रिपोर्ट से साफ है कि रिएक्टर यूनिट के विस्फोट ने पूरी फैक्ट्री को हिला दिया, जिससे कई कर्मचारी दूर जा गिरे और संरचना भी ढह गई। ऐसे हादसों में मजदूर सबसे ज्यादा जोखिम में रहते हैं, खासकर जब उनकी पहचान और पहुंच सीमित हो जाती है - शिफ्ट के वक्त मोबाइल अंदर जमा कराने की प्रथा इसके उदाहरण हैं।
आर्थिक नजरिए से यह घटना सिगाची इंडस्ट्रीज की साख और शेयर बाज़ार पर भी भारी पड़ी, जहां उनके शेयरों में लगभग 10% की गिरावट आई। सामाजिक तौर पर, अधिकांश मृतक और घायल प्रवासी मजदूर वर्ग से आते हैं, जो असुरक्षा और इंश्योरेंस की कमी के चलते और भी वंचित होते हैं। यह पूरी घटना भारत के औद्योगिक विकास के साथ-साथ मज़दूर सुरक्षा और कॉर्पोरेट उत्तरदायित्व पर भी गंभीर प्रश्न उठाती है।
विमर्श : क्यों मायने रखती है यह घटना
इस फैक्ट्री ब्लास्ट में जानमाल का नुकसान अपनी जगह, मगर गहरी चिंता यह है कि ऐसे हादसे भारत की औद्योगिक संरचना में बार-बार क्यों होते हैं? मजदूर हित संरक्षण, सुरक्षा समन्वयन, आपातकालीन प्रतिक्रिया आदि सवाल बरकरार हैं। इसमें मीडिया रिपोर्टिंग में भी एक पैटर्न दिखता है – राहत पैकेज और शोक संदेशों की चर्चा ज्यादा, जबकि दीर्घकालिक समाधान और ज़िम्मेदारी तय करने की कवायद कम।
यह हादसा अमरोहा की पटाखा फैक्ट्री की दुर्घटना या पिछले सालों में हुई तमाम फैक्ट्रियों की आग-धमाकों की याद दिलाता है। क्यों, दशकों बाद भी, हम इनसे सबक नहीं सीखते? क्या मुआवजे से ज़िंदगियों का मूल्य चुकता हो सकता है? या हमें औद्योगिक सुरक्षा कानून, प्रवासन नीतियों और श्रमिक सशक्तिकरण के मूलभूत सुधारों की माँग को तेज़ करना चाहिए?
एक सवाल और भी है — क्या भारत को अपने तेज़ औद्योगिकीकरण के साथ सुरक्षा ढांचे का भी पुनर्निर्माण नहीं करना चाहिए? क्या सिर्फ आर्थिक विकास ही, नागरिक और श्रमिक जीवन की कीमत पर जायज़ है?
निष्कर्ष
संगारेड्डी की घटना हमें एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर करती है कि प्रगति की दौड़ में यदि सुरक्षा, नैतिकता और मानवीय गरिमा पीछे छूट जाए, तो सामाजिक पीड़ा और अव्यवस्था की कीमत पूरे देश को चुकानी पड़ती है। जरूरी है कि ऐसी घटनाओं को केवल खबर बनने के बजाय, नीतिगत बदलाव और सामाजिक चेतना का माध्यम भी बनाया जाए।
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