संक्षिप्त सारांश
हाल ही में, भारतीय मंत्री किरेन रिजिजू ने दलाई लामा के उत्तराधिकारी के चयन को लेकर एक अहम बयान दिया। उन्होंने कहा कि केवल दलाई लामा और उनकी संस्था (गदेन फोद्रांग ट्रस्ट) को ही उनके उत्तराधिकारी की पहचान का अधिकार है—यह टिप्पणी चीन की उस पुरानी दावेदारी के विपरीत है, जिसमें वह खुद को दलाई लामा के उत्तराधिकारी को मंजूरी देने का अधिकारी मानता है। इस पर चीन ने भारत को चेतावनी दी कि तिब्बत से जुड़ी 'अंतरिक' बातों में दखल न दे। भारत ने अपनी तरफ से जवाब में कहा कि वह धार्मिक स्वतंत्रता का सम्मान करता है और धार्मिक मसलों पर पक्ष नहीं लेता है।
विश्लेषण
इस घटनाक्रम के ज़रिए भारत-चीन संबंधों, तिब्बत की राजनीति और धार्मिक अधिकारों के संघर्ष की जटिल परतें सामने आती हैं। दलाई लामा के उत्तराधिकार विवाद की जड़ें 1959 की उस घटनाओं में हैं, जब चीन के दमन के बाद दलाई लामा भारत में शरण लेने को मजबूर हुए थे। चीन, तिब्बत को अपनी मुख्य भूमि का हिस्सा मानते हुए धार्मिक नेतृत्व पर भी नियंत्रण चाहता है—यह उसकी एक राजनीतिक रणनीति है, ताकि तिब्बती अस्मिता और आज़ादी आंदोलन को चुनौती दी जा सके।
भारत की प्रतिक्रिया और मंत्री का बयान, तिब्बती शरणार्थियों के धार्मिक अधिकारों के पक्ष में खड़ा होना है, जिससे भारत संदेश देना चाहता है कि उसके यहां धार्मिक स्वतंत्रता सर्वोपरि है। वास्तविकता यह भी है कि दलाई लामा भारत की कूटनीति के लिए एक "सॉफ्ट पावर" साधन हैं, जिससे चीन पर अप्रत्यक्ष दबाव बनाया जा सकता है। इसके अलावा, भारत में दलाई लामा की लोकप्रियता और तिब्बती समुदाय का वजूद दोनों ही इस निर्णय की पृष्ठभूमि को अहम बनाते हैं।
चीन की कड़ी प्रतिक्रिया यह दिखाती है कि दलाई लामा की उत्तराधिकार प्रक्रिया उसके लिए केवल धार्मिक नहीं बल्कि रणनीतिक मसला है। चीन को डर है कि दलाई लामा का चयन उसके नियंत्रण से बाहर हुआ तो तिब्बत में स्वतन्त्रता और चीन-विरोधी गतिविधियों को नैतिक बढ़ावा मिलेगा।
विमर्श और प्रश्न
यह मुद्दा विविध आयामों के कारण विचारणीय है—क्या धार्मिक नेतृत्व के चयन में केवल आस्था-समुदाय का अधिकार होना चाहिए या पड़ोसी राज्य (जिसका दावा क्षेत्र पर है) का भी दखल जायज है?
भारत का रुख धार्मिक स्वतंत्रता के पक्ष में है, लेकिन इसमें छुपी रणनीतिक चाल और कूटनीतिक संदेश भी शामिल है। साथ ही, यह सवाल भी उठता है कि अगर चीन अपनी पसंद का दलाई लामा चुनता है, तो दुनिया के बाकी बौद्ध देशों—विशेषकर भारत के तिब्बती समुदाय—उसको कितना स्वीकार करेंगे?
यह मसला एशिया में धार्मिक और राजनीतिक सीमाओं के बीच तनातनी का नया अध्याय खोलता है, जिसमें धार्मिक स्वतंत्रता, राज्य की संप्रभुता और कूटनीतिक चालबाजियों का जटिल मिश्रण है। किनारा सीधा नहीं है—यह तूफ़ान अभी शांत नहीं होगा।
निष्कर्ष
दलाई लामा के उत्तराधिकार का सवाल तिब्बत-चीन-भारत की त्रिकोणीय राजनीति, धार्मिक अधिकारों की रक्षा और क्षेत्रीय समीकरणों का प्रतीक बन गया है। भारत की ओर से धार्मिक स्वायत्तता का समर्थन चीन के लिए कड़ा संदेश है—हालांकि इस बयान के दूरगामी कूटनीतिक परिणाम क्या होंगे, यह वक्त बताएगा।
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