सारांश:
बिहार में आगामी विधानसभा चुनावों से पहले चुनाव आयोग (ECI) की स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) प्रक्रिया पर गहरा विवाद उभर आया है। विपक्षी दलों का आरोप है कि इस प्रक्रिया से लगभग दो करोड़ मतदाताओं के नाम वोटर लिस्ट से हट सकते हैं—खासतौर पर दलित, आदिवासी, प्रवासी मजदूर और गरीब वर्गों के। कांग्रेस, राजद, वाम दल समेत 11 विपक्षी दलों ने मुख्य चुनाव आयुक्त से मिलकर विरोध जताया है। आरोप है कि 2003 की वोटर लिस्ट को आधार बनाकर बाकी लोगों से जन्म प्रमाण पत्र की मांग न केवल जटिल है, बल्कि असंगत और लाखों लोगों के मताधिकार पर सीधा हमला है।
विश्लेषण:
चुनाव आयोग के नए नियमों का तर्क वोटर लिस्ट की शुद्धता और फर्जी वोटर हटाने का है, लेकिन विपक्ष ने इसके संभावित दुष्परिणामों की ओर ध्यान दिलाया है। सबसे बड़ी चिंता यह है कि जिन लोगों के पास जन्म प्रमाण पत्र या अन्य जरूरी दस्तावेज़ नहीं हैं—जो गरीब, ग्रामीण, प्रवासी और ऐतिहासिक रूप से उपेक्षित समुदायों में आम बात है—उनका नाम आसानी से कट सकता है। इससे दो करोड़ तक वोटरों के बाहर होने का खतरा वास्तविक हो जाता है।
यह कदम राजनीतिक दृष्टि से भी संवेदनशील है, क्योंकि चुनाव आयोग की प्रक्रिया से विपक्ष के समर्थन वाले तबकों के प्रभावित होने का आरोप है। आयोग ने 2003 को आधार-वर्ष चुनने के पीछे कोई ठोस तर्क नहीं दिया, जिससे प्रक्रिया की पारदर्शिता और न्यायिकता सवालों के घेरे में है।
इसके अलावा, यदि मतदाता को लिस्ट से निकाल दिया गया तो चुनाव के दौरान अदालत में चुनौती भी लगभग असंभव होगी, जो लोकतंत्र की रक्षा की राह में गंभीर बाधा है।
चर्चा:
इस मुद्दे का महत्व सिर्फ बिहार या वोटर लिस्ट तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र और चुनावी जवाबदेही की बुनियाद से जुड़ा है। भारत जैसे विविध और बड़े देश में नागरिकता और पहचान के दस्तावेज़ हर वर्ग के पास होना संभव नहीं। विस्थापित, प्रवासी,अनपढ़ और सीमांत समुदाय विशेष रूप से प्रभावित होते हैं। ये प्रयास न्याय की बजाय बहिष्करण और 'लोकतांत्रिक विस्मरण' को जन्म दे सकते हैं।
यह सवाल भी अहम है कि 2003 को आधार बनाने की क्या कोई नैतिक, प्रशासनिक या तर्कसंगत वजह थी, खासकर जब तब के बाद कई निष्पक्ष चुनाव हो चुके हैं। क्या इससे पहले के चुनाव अमान्य माने जाएंगे? या आज अचानक यह संशोधन किसी राजनीतिक दबाव या नीयत का परिणाम है?
दूसरी ओर, मतदाता सूची की शुद्धता ज़रूरी है ताकि फर्जीवाड़ा रोका जा सके—लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वैध मतदाता ही खत्म हो जाएँ। चुनाव आयोग को निष्पक्षता और समावेशिता के बीच संतुलन साधना चाहिए, न कि किसी एक वर्ग को राज्यसत्ता से दूर करते हुए।
साफ है, यह मुद्दा न केवल तकनीकी या प्रशासनिक है, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा, समावेश और अधिकार की राजनीति का संकेत है। इसकी पड़ताल और नागरिक जागरूकता दोनों आवश्यक हैं।
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