संक्षिप्त सारांश
रॉयटर्स की रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा है कि भारत के साथ व्यापार समझौते की संभावना है जिससे अमेरिकी कंपनियों को भारत में व्यापार करने में आसानी होगी और उन्हें ऊँचे टैरिफ से राहत मिलेगी। हालाँकि, जापान के साथ ऐसी संभावना सीमित नज़र आती है और राष्ट्रपति ट्रंप ने वहाँ के लिए और ऊँचे टैरिफ की चेतावनी दी है। अमेरिका 9 जुलाई की समयसीमा से पहले भारत सहित कई देशों से व्यापार समझौतों पर जोर दे रहा है ताकि बड़ी टैरिफ वृद्धि रोकी जा सके। अमेरिकी अधिकारियों का कहना है कि भारत के साथ वार्ता अंतिम चरण में है, जबकि भारत-द्वारा टैरिफ पर आपसी मतभेद अभी भी बने हुए हैं।
विश्लेषण
ट्रंप प्रशासन की व्यापार नीति में 'रिसिप्रोकल' अर्थात 'पारस्परिक' टैरिफ का विशेष स्थान है। इसका उद्देश्य अमेरिका के व्यापार घाटे को कम करना और घरेलू उद्योगों को संरक्षण देना है। भारत के लिए टैरिफ बढ़ाने की धमकी, यहाँ के प्रमुख उत्पादों (जैसे ऑटो पार्ट्स, स्टील, कृषि वस्तुएँ) पर विशेष दबाव बना सकती है। दूसरी ओर, ट्रंप द्वारा जापान को अतिरिक्त टैरिफ से धमकाने की रणनीति, दोनों देशों के कूटनीतिक संबंधों में तनाव पैदा कर सकती है।
इस पूरे घटनाक्रम में चीन का प्रभाव भी छुपा हुआ है—quad समूह की बैठक के बहाने भारत-अमेरिका की निकटता और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन की राजनीति भी जुड़ी हुई है। संवाद के दौरान दोनों पक्ष टैरिफ, बाजार पहुंच, तथा कृषि/औद्योगिक आयात जैसे मुद्दों पर अपने-अपने हित साधने में लगे हैं।
चर्चा
यह मामला केवल दो देशों के द्विपक्षीय व्यापार तक सीमित नहीं है, बल्कि वैश्विक व्यापार की बदलती प्रवृत्तियों और अमेरिका की 'प्रोटेक्शनिस्ट' नीति का भी संकेत देता है। ट्रंप का यह रुख 'अमेरिका फर्स्ट' एजेंडा को दर्शाता है, जहाँ सहयोग के साथ दबाव की रणनीति अपनाई जाती है।
भारत जैसे विकासशील देश के लिए अमेरिकी बाज़ार बेहद महत्वपूर्ण है, लेकिन बाजार खोलने का अर्थ स्थानीय उद्योगों के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ाना भी है। इस तरह के समझौतों का असर भारतीय छोटे व्यवसाय, किसानों और उपभोक्ताओं—all stakeholders—पर पड़ेगा।
एक ओर, यदि समझौता हो जाता है तो दोनों देशों के राजनीतिक और आर्थिक संबंध प्रगाढ़ होंगे, वहीं दूसरी ओर अत्यधिक दबाव से भारत की आत्मनिर्भरता नीति भी चुनौती में आ सकती है। जापान के साथ ट्रंप की तल्ख़ी, संकेत करती है कि अमेरिका की व्यापार-नीति तात्कालिक और क्षेत्रवार रणनीति पर केंद्रित है, जिसमें 'दोस्त-प्रतिद्वंद्वी' की रेखा अक्सर धुंधली हो जाती है।
आखिरी सवाल:
- क्या केवल टैरिफ/आयात-निर्यात डेटा से आर्थिक रिश्तों का मूल्यांकन पर्याप्त है?
- क्या ऐसी व्यापार वार्ताएँ न्यायोचित संतुलन स्थापित कर पाती हैं या प्राथमिकताएँ बदल जाती हैं?
- वैश्विक व्यापार व्यवस्था में ऐसी 'डील- या-ड्रा' रणनीति का स्थायी असर क्या होगा?
आज के समय में, जब वैश्वीकरण की गति धीमी हो रही है और संरक्षणवाद (Protectionism) बढ़ रहा है, यह व्यापार वार्ता न केवल भारत- अमेरिका बल्कि समूचे विश्व के लिए नज़िर बन सकती है।
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