संक्षिप्त सारांश
भारत और चीन के बीच हाल के वर्षों में तनावपूर्ण सीमा संबंधों के बावजूद, दोनों देश संबंधों को फिर से संवारने की ओर बढ़ रहे हैं। 2020 की गलवान घाटी की हिंसा, व्यापार प्रतिबंध, और भू-राजनीतिक उथल-पुथल के चलते दोनों देशों के बीच अविश्वास गहराया। हालांकि, बदलती अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों — जैसे अमेरिका की अप्रत्याशित विदेश नीति, रूस-चीन समीपता, और आर्थिक निर्भरता — ने भारत को चीन को फिर से समझने और संवाद के विकल्प तलाशने के लिए प्रेरित किया है। इस प्रक्रिया में व्यापार, वीज़ा प्रतिबंध, सीमा विवाद, और बहुपक्षीय मंचों में प्रतिस्पर्धा जैसी चुनौतियां सामने हैं।
विश्लेषण
भारत-चीन संबंध जितने सतही स्तर पर आर्थिक हैं, उतने ही गहरे रणनीतिक और राजनीतिक जटिलताओं से जुड़े हैं। हाल में भारत के शीर्ष अधिकारियों की चीन यात्रा, सुषुप्त सामंजस्य की दिशा में एक संकेत हो सकती है, पर जमीनी स्थिति में सतर्कता और प्रतिस्पर्धा अधिक है।
भारत के व्यापारिक हित और चीन के साथ बनी आर्थिक निर्भरता — विशेषकर दुर्लभ पृथ्वी धातुओं जैसे क्षेत्रों में — भारत को चीन से पूरी तरह कटने का विकल्प नहीं देती। वहीं चीन, सीमा पर शांति बनाए रखना चाहता है ताकि वह ताइवान जैसे अन्य मोर्चों पर ध्यान केंद्रित कर सके। लेकिन चीन की नजर में भारत की अमेरिका-गठबंधन की ओर झुकाव उसके लिए चिंता का कारण है।
अमेरिकी नीतियों की अनिश्चितता और रूस की चीन निर्भरता ने भारत की भू-राजनीतिक संतुलन नीति को और जटिल बना दिया है। इसके अलावा, चीन द्वारा व्यापार और तकनीकी बाधाओं का हथियार इस्तेमाल करना भारत की औद्योगिक नीति पर प्रत्यक्ष दबाव बनाता है। दोनों ओर क्षेत्रीय संप्रभुता और राष्ट्रीय स्वाभिमान प्रश्नों पर कोई भी नरमी दिखाना राजनीतिक रुप से जोखिमपूर्ण है।
चर्चा
यह विषय न केवल भारत-चीन संबंधों की दिशा का निर्धारण करता है, बल्कि बदलती वैश्विक राजनीति में भारत के स्थान को भी परिभाषित करता है। क्या भारत अमेरिका और पश्चिम के बीच सामंजस्य बैठा सकता है या फिर चीन के साथ विवादों के बीच साझा हित खोज सकता है?
महत्वपूर्ण प्रश्न यह हैं:
- भू-राजनीतिक अनिश्चितता में भारत को किस रणनीति पर आगे बढ़ना चाहिए—पश्चिमी निर्भरता बढ़ाना, या क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता को सीमित करने के रास्ते तलाशना?
- चीन की हरकतों के बीच भारत अपनी तकनीकी और औद्योगिक आत्मनिर्भरता कैसे बढ़ा सकता है?
- सीमा विवाद में स्थायी समाधान संभव है या दोनों देशों को लाभ का व्यावहारिक संतुलन खोजने पर विवश रहना पड़ेगा?
इतिहास से स्पष्ट है कि भारत-चीन संबंध बहुपक्षीय, अवसरवादी और प्रतिस्पर्धी रहेंगे। सहअस्तित्व की राह में राजनीति, व्यापार, सुरक्षा और राष्ट्रीय भावना — सभी को संतुलित करना होगा।
निष्कर्ष
वर्तमान में, भारत और चीन ने स्थायी समाधान की बजाय व्यावहारिक सहयोग और टकराव टालने का विकल्प चुना है। उनकी आगे की राह इस पर निर्भर करेगी कि वे घरेलू दबावों, वैश्विक दबाओं और बदलती अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के बीच कितनी समझदारी से संतुलन बना पाते हैं।
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