मुख्य बिंदु और संक्षिप्त सारांश
बीबीसी की इस रिपोर्ट में भारत और चीन के आपसी संबंधों में हाल के महीनों में आई परिवर्तनशीलता व उससे जुड़े कारणों का विश्लेषण किया गया है। सीमा विवाद, विशेषकर गलवान घाटी में 2020 के खूनी संघर्ष के बाद दोनों देशों के बीच दूरियाँ काफी बढ़ी थीं। हालाँकि, परिवर्तित वैश्विक परिदृश्य और बढ़ते भू-राजनीतिक तनावों के चलते दोनों देश अब संबंधों को सामान्य करने की कोशिश कर रहे हैं। भारत के वरिष्ठ अधिकारियों की हालिया चीन यात्रा, वीज़ा नियमों में ढील, सीधे हवाई संपर्क की बहाली, और धार्मिक यात्राओं की अनुमति जैसे कदम इसके प्रमाण हैं। फिर भी, गहरी अविश्वास की रेखाएँ मौजूद हैं—सीमावर्ती क्षेत्रों, चीन की अरुणाचल प्रदेश पर दावेदारी और व्यापारिक निर्भरता से लेकर भू-राजनीतिक विकल्पों तक।
विश्लेषण: कारक, प्रभाव और तात्पर्य
सीमित सहयोग के इस रचनात्मक दौर के पीछे विविध कारक भूमिका निभा रहे हैं—जिसमें अमेरिका की अनिश्चित नीति, पाकिस्तान-चीन की बढ़ती नजदीकी, रूस की यूक्रेन युद्ध के बाद चीन पर निर्भरता, और वैश्विक आपूर्ति-श्रृंखला की जटिलताएँ शामिल हैं। चीन न केवल अपनी विश्व आर्थिक ताकत का लाभ उठा रहा है, बल्कि व्यापारिक दबाव—जैसे दुर्लभ तत्वों (rare earth metals) और खाद का निर्यात रोकना—का भी उपयोग कर रहा है। इससे भारत के मैन्युफैक्चरिंग और कृषि क्षेत्र पर स्पष्ट दबाव बनता है।
भारत, जो अमेरिका की अपेक्षित सामरिक साझेदारी को ठोस समर्थन की तरह देखता था, ट्रंप प्रशासन के द्वितीय कार्यकाल में अप्रत्याशित रवैये और पाकिस्तान के साथ जुड़ाव से असहज महसूस कर रहा है। इसी वजह से दिल्ली 'रणनीतिक संतुलन' की नीति की ओर बढ़ते हुए चीन के साथ संवाद फिर से स्थापित करने के लिए प्रेरित हुआ है।
एक बड़ा राजनीतिक-सामाजिक आयाम यह भी है कि भारत घरेलू स्तर पर चीन के सामने अधिक झुकाव की छवि प्रस्तुत नहीं करना चाहता। इसकी जगह वह अर्थव्यवस्था, सीमावर्ती क्षेत्रों में शांति, और बहुपक्षीय समूहों (SCO, BRICS आदि) के जरिये संतुलन साधने की रणनीति अपनाता दिखता है।
चर्चा: क्यों अहम है यह मुद्दा
भारत और चीन दोनों न केवल वैश्विक आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं, बल्कि निर्माण, तकनीक और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में भी निर्णायक भूमिकाओं में हैं। सीमा विवादों के स्थायी समाधान के अभाव में, संबंधों की यह 'वैकल्पिक सामान्यता' छोटे-छोटे व्यापारिक और कूटनीतिक आँकड़ों में आगे-पीछे होती रहेगी।
सवाल है: क्या चीन की तथाकथित 'शांति' की नीति महज़ अपने तात्कालिक हितों (जैसे ताइवान पर ध्यान केंद्रित करने के लिए हिमालय क्षेत्र में स्थिरता) तक सीमित है? क्या भारत आर्थिक निर्भरता कम करने की दिशा में व्यावहारिक कदम उठा पाएगा? क्या बहुपक्षीय संगठन नई सुरक्षा गारंटी प्रदान कर पाएंगे?
इन संबंधों की डगमगाती स्थिरता क्षेत्रीय और विश्व राजनीति के लिए गहरे मायने रखती है। दोनों देशों का कोई भी टकराव पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था, सुरक्षा, और जलवायु नीति तक पर असर डाल सकता है।
निष्कर्ष
भारत-चीन संबंध फिलहाल लाभ और संशय के बीच संतुलन साधने की अवस्था में हैं। दोनों जानती हैं कि सीमा विवाद का हाल-फिलहाल कोई संपूर्ण हल नहीं निकलने वाला, इसलिए 'कार्यक्षमता' (workable relationship) पर ध्यान केंद्रित किया गया है। परंतु, अंतिम संतुलन आंतरिक राजनीति, आर्थिक नीति, और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बदलती प्राथमिकताओं पर निर्भर करता रहेगा।
Comments
No comments yet. Be the first to comment!