सारांश
संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय, न्यूयॉर्क में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने ‘द ह्यूमन कॉस्ट ऑफ टेररिज्म’ प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। प्रदर्शनी में पहलगाम आतंकी हमले के शिकार पीड़ितों की तस्वीरें और वीडियो प्रस्तुत किए गए, जिनमें एक पीड़ित मां की गवाही और उसका दर्दिश चेहरा भी शामिल था। इस दृश्य ने न केवल जयशंकर को झकझोर दिया, बल्कि वहाँ भारत का स्पष्ट संदेश भी गया—’फिर कभी नहीं’। जयशंकर ने आतंकवाद की सभी शक्लों की आलोचना की और इसके प्रॉक्सी वॉर के रूप में इस्तेमाल पर रोक लगाने की बात कही।
विश्लेषण
यह घटना भारत की कूटनीतिक रणनीति के नए और भावनात्मक पक्ष को दर्शाती है, जहाँ केवल नीतिगत शब्दों के बजाय, वास्तविक पीड़ा और मानवता को केंद्र में रखा गया। पहलगाम हमले का उल्लेख करना सिर्फ एक घटना का स्मरण नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर आतंक के खिलाफ भारत की स्पष्ट नेतृत्वकारी भूमिका दिखाता है।
इस कदम के कई स्पष्ट और गहरे निहितार्थ हैं:
- राजनयिक संदेश : भारत अब केवल पीड़िता की भूमिका नहीं निभा रहा, बल्कि वैश्विक मंच पर आक्रामक रुख अपना रहा है और आतंकवाद के खिलाफ एक नैरेटिव स्थापित करने की कोशिश कर रहा है।
- पॉलिटिकल फ्रेमिंग : प्रदर्शनी में तस्वीरों व वीडियो के माध्यम से शब्दों से आगे निकलकर भावनाओं और मानव व्यथा से बात की गई, जिससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर मनोवैज्ञानिक असर बढ़ता है।
- दोगली वैश्विक नीति पर सवाल : जयशंकर साफ कर चुके हैं कि दुनिया की 'डबल स्पीक' अब स्वीकार्य नहीं है। यहाँ इशारा खासकर पाकिस्तान और कुछ पश्चिमी देशों द्वारा आतंकवाद पर दोहरी नीति की ओर है।
चर्चा
यह विषय केवल भारत या पहलगाम हमले तक सीमित नहीं है। यह एक वैश्विक प्रश्न है—क्या दुनिया आतंकवाद को सिर्फ कूटनीतिक औजार या जियोपॉलिटिकल प्रॉक्सी के तौर पर देखती रहेगी, या फिर पीड़ित मानवता की पीड़ा से सीख लेगी? भारत का यह नया कूटनीतिक साहस न केवल अपने लिए बल्कि उन सब देशों के लिए प्रेरणा है जो आतंकवाद के शिकार हैं।
याद रखना चाहिए कि आतंकवाद केवल एक राष्ट्र की समस्या नहीं, बल्कि शांति और मानवता का साझा विरोधी है। जिन देशों ने इसे रणनीतिक संसाधन की तरह इस्तेमाल किया है, वे खुद भी अस्थिरता और हिंसा के दलदल में फंसे हैं—पाकिस्तान इसका ताजा उदाहरण है।
भारत का 'नेवर अगेन' संदेश केवल एक टैगलाइन नहीं, बल्कि इसकी बदली हुई नीति का इशारा है: अब न तो चुप्पी, न ही सिर्फ शब्द; बल्कि नैतिक, कूटनीतिक और अंतरराष्ट्रीय दबाव का आक्रामक प्रयोग। सवाल है कि क्या वैश्विक व्यवस्था इस पीड़ा और साहस को अपने ढांचे में ठोस कार्रवाई एवं बदलाव में बदल पाएगी? साथ ही, क्या हम यह चर्चा आगे बढ़ा सकते हैं कि आतंकवाद की जड़ें कहाँ हैं, और क्या इसे केवल सैन्य या राजनीतिक तरीकों से मिटाया जा सकता है, या इसके लिए सामाजिक, वैचारिक, और मानवीय स्तर पर नया संवाद आवश्यक है?
निष्कर्ष
संयुक्त राष्ट्र में भारत की पहलकदमी और जयशंकर की भावनात्मक प्रतिक्रिया न केवल एक घटना का सच सामने लाती है, बल्कि इस सौम्य परंतु निर्णायक डिप्लोमेसी की ओर संकेत करती है, जिसे दुनिया अब नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती।
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