क्या आपने कभी सोचा है कि इमारतें और दीवारें भी अपने अंदर कहानियाँ समेटे होती हैं—वो भी जो खत्म नहीं होतीं, बस नए रंग-रूप में लौट आती हैं? आतंकवादी ठिकानों का बार-बार बनना न सिर्फ संघर्ष की तकनीकी लड़ाई है, बल्कि यह उस मनोवैज्ञानिक मनोवृत्ति का भी प्रतीक है, जो इतिहास से कभी कोई सीख नहीं लेती।
दुनिया भर के संघर्ष-संतप्त क्षेत्रों में ऐसे तमाम प्रमाण हैं जहाँ एक ओर सशस्त्र ऑपरेशन होते हैं, दूसरी ओर मलबे पर फिर वही नयी बुनियादें डाली जाती हैं। एक दिलचस्प उदाहरण बर्लिन की दीवार का भी है—जहाँ जब वो गिरी, उम्मीद थी कि दरारों से आज़ादी और सहयोग की हवा निकलेगी। मगर वक्त-वक्त पर मानसिक दीवारें फिर खड़ी कर ली जाती हैं।
क्या हम भी कभी ये समझ पाएंगे कि स्थायी समाधान हथियारों से नहीं, बल्कि सोच और शिक्षा के खाके बदलने से आता है?
सोचिए, अगर एक दिन वे ठिकाने किताबघरों में, कला दीर्घाओं में या स्कूलों में तब्दील हो जाएँ तो कैसा लगेगा? क्या हम इतिहास की इस गलती से कुछ नया रच सकते हैं?
This article was inspired by the headline: 'नहीं सुधरेगा पाकिस्तान.. ऑपरेशन सिंदूर में ध्वस्त आतंकवादी ठिकानों को फिर से बना रहा - Navbharat Times'.
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